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केतु

रामचरितमानस ने केतु के अलग अलग रूपों की एक दुनिया ही दे दी। कहीं धर्म के रूप में,कहीं बसे बसाए घर को तोड़ने वाले रूप में,कहीं घरद्वार छोड़ कर चले जाने वाले के रूप में , कहीं समाधि भंग करने वाले के रूप में ,कहीं बुद्धि ,विवेक के साथ छोड़ जाने के रूप में तो कहीं अतुलित बल वाले ,आसुरी प्रवृत्ति वाले संतान के जन्म होने के रूप में वृषकेतु चित्रकेतु बारीचरकेतु झषकेतु जलचरकेतु  उपकेतु यहाँ तीन नाम ,बारीचरकेतु,झषकेतु,जलचरकेतु .. बारी = मछली,मीन भी लिखा मिला तो इससे इसे समझना आसान हो गया। जलचर = यहाँ भी मछली हो सकती है।केकड़ा भी हो सकता है। झष = मछली यहाँ सोचना शुरू किया .. बारीचर = मछली = मीन राशि जलचर = यहाँ जब तुलसीदास जी चर्चा कर रहे हैं तब आगे एक शब्द का इस्तेमाल करते हैं गुहा अर्थात् गुफा । मछली की एक प्रजाति होती है ' गरई' ,यह कम पानी की जगह में भी मिट्टी में काफी अंदर जाकर रहती है। कहीं यहाँ तुलसीदास जी हमें वृश्चिक राशि के केतु को तो नहीं समझा रहे हैं .. झष =यहाँ चर्चा करते वक्त तुलसीदास जी एक शब्द का इस्तेमाल करते हैं बाण ।केकड़े के पैर बाण समान होते हैं

रामचरितमानस से ज्योतिषशास्त्र को समझने का एक प्रयास ..

" ग्रसइ न कैकेयी करतब राहु" यहाँ तुलसीदास जी चाहते तो लिख सकते थे , "डसइ न कैकेयी करतब राहु" ( राहु को सर्प माना जाता है और सर्प डसता है ) पर उन्होंने ऐसा नहीं लिखा।डसइ की जगह ग्रसइ लिखा। यहाँ एक शब्द ' ग्रसइ ', राहु को देखने का नजरिया पूरी तरह बदल देता है। ग्रसइ = ग्रास = कौर =सीधा सीधा निगल जाना या फिर churning/ mixing के बाद निगलना